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कविता

ओले की गलन

स्कंद शुक्ल


कमरे के भीतर से झाँकते हैं शहरी
कि आज बाहर ओले गिरे हैं!
पकौड़ियाँ तली जा रही हैं यहाँ
चाय के घूँटों के साथ उतारी जाएँगी नीचे हलक से अभी,
यहाँ से महज डेढ़ किलोमीटर दूरी पर
गेहूँ की खड़ी फसल चित हो गई है
मगर अन्नदाता के पास आँसू भी नहीं बचे हैं अब
हलक से नीचे उतारने को।
ये ओले नहीं हैं
रबर की गोलियाँ हैं
जो प्रदर्शन करती हरी भीड़ पर
आसमानी सत्ता ने चलाई हैं
उपज को तितर-बितर करने को
ताकि भूख का वर्चस्व यों ही कायम रहे।
ये ओले नहीं हैं
मधुमक्खियों का झुंड है
शांति से प्रदर्शन करती जनता पर
किसी ने आंदोलन को रफा-दफा करने के लिए
ऊपर नीले छत्ते पर शरारत से ढेला उछाला है।
और यहाँ? न जाने क्या खाया जा रहा है तल कर
गर्म पकौड़ियाँ, ठंडे ओले या निश्ताप अन्नदाता!
ओला भी क्या चीज है
कितनी तरह से रूप बदल कर
वह लोगों की भूख मिटाता है
गाँवों में वह स्वर्ग से पेट पर पथराव है
और शहर के लिए वह तेल पर तैरती पकौड़ियाँ और मरते किसान है,
गाँवों और शहरों दोनों के लिए
ओलों की बारिश की मार एक सी ही है
मगर गाँव तुरंत और सीधे मरता है
और शहर कल पकौड़ी और किसान को खाकर मरेगा।


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